शुद्ध अक़ीदा और उसके विरुद्ध चीज़ें- शुद्ध अक़ीदा ही इस्लाम धर्म का मूल तत्व और मिल्लत का आधार है, इसी के साथ पवित्र कुरआन अवतरित हुआ और अल्लाह तआला ने अपने ईश्दूत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भेजा. तथा कोई भी कथन और कर्म उस समय तक शुद्ध और स्वीकार नहीं हो सकता जब तक कि वह शुद्ध अक़ीदा पर आधारित न हो। प्रस्तुत पुस्तक में किताब व सुन्नत से प्रमाणित शुद्ध अक़ीदा का उल्लेख किया गया है जिस पर ईमान लाना और उस पर सुदृढ़ रहना अनिवार्य है, तथा उसके विरुद्ध और विपरीत अक़ीदों का वर्णन करके उनसे सावधान किया गया है।
शुद्ध अक़ीदा और उसके विरुद्ध चीज़ें- शुद्ध अक़ीदा ही इस्लाम धर्म का मूल तत्व और मिल्लत का आधार है, इसी के साथ पवित्र कुरआन अवतरित हुआ और अल्लाह तआला ने अपने ईश्दूत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भेजा. तथा कोई भी कथन और कर्म उस समय तक शुद्ध और स्वीकार नहीं हो सकता जब तक कि वह शुद्ध अक़ीदा पर आधारित न हो। प्रस्तुत पुस्तक में किताब व सुन्नत से प्रमाणित शुद्ध अक़ीदा का उल्लेख किया गया है जिस पर ईमान लाना और उस पर सुदृढ़ रहना अनिवार्य है, तथा उसके विरुद्ध और विपरीत अक़ीदों का वर्णन करके उनसे सावधान किया गया है।
मैं मानता हूँ कि मेरी कलम किसी को न्याय नहीं दे सकती है. मगर अपनी कलम से पूरी ईमानदारी के साथ यदि किसी के ऊपर अन्याय हो रहा है. तब उसको लेखन द्वारा उच्च अधिकारीयों तक पहुंचा दूँ. इस अख़बार के प्रथम पेज पर छपी खबर(मोबाईल चोरी के शक में युवक की तार से गला घोंटकर हत्या ) के बारें में मुझे जब अपने विश्वनीय सूत्रों से मालूम हुआ कि उपरोक्त केस पुलिस पैसे लेकर रफा-दफा करने के चक्कर में है. तभी मैंने थाने में जाकर उपरोक्त घटना का पूरा विवरण लिया उसके बाद पीड़ित पक्ष से मिला और अपने अख़बार में छपने से पहले हर रोज के अख़बारों के पत्रकारों के माध्यम से राष्ट्रिय अख़बारों में उपरोक्त घटना को प्रिंट करवाया. जिससे पुलिस के ऊपर दबाब बना और उसको आरोपितों की गिरफ्तारी दिखानी पड़ी. मेरी पत्रकारिता में काफी ऐसे अवसर आये है कि मेरे सूत्रों और आम आदमी ने किसी घटना की सूचना पुलिस को देने से पहले मुझे दी और अनेक बार मैंने पुलिस को फोन करके घटनास्थल पर बुलाया था. मैंने अपनी पत्रकारिता को लेकर सूत्रों और आम आदमी में यह विश्वास कायम किया था कि आपका नाम का जिक्र कभी नहीं आएगा. बेशक कोई कुत्ते की मौत मारे या धोखे से कभी मुझे मरवा दें. आप बिना झिझक के मुझे घटना और उसकी सच्चाई से अवगत करवाएं. मेरे बारें में यह मशहूर था कि एक बार कोई ख़बर सिरफिरे को पता चल जाये फिर खबर को खरीद या दबा नहीं सकता है, क्योंकि मुझे पत्रकारिता के शुरू से धन-दौलत से इतना मोह नहीं रहा है. हाँ, अपनी मेहनत और पसीने की कमाई का एक रुपया किसी के पास नहीं छोड़ता था. यदि शुरू में किसी ताकतवर व्यक्ति ने या किसी ने अपनी दबंगता के चलते रख भी लिए तो मैंने उसका कभी कोई अहित नहीं किया. मगर मेरे पैसे उसके पाप के घड़े की आखिरी बूंद साबित हुए. भगवान ने उनको ऐसी सजा दी कि काफी लोग तो दस-पन्दह साल तक भी उबर नहीं पायें. इसल
कैंब्रिज के अर्थशास्त्री, हा-जून चांग का मानना है कि ‘अर्थशास्त्र का 95 प्रतिशत सिर्फ सामान्य समझ है, जिसे गणित और भारी-भरकम शब्दावली का प्रयोग करके मुश्किल बनाया जाता है।’ इससे हम समझ सकते हैं कि लोग वित्त से जुड़े मामलों से दूर क्यों रहते हैं। सरकारें नयी परियोजनाओं, योजनाओं और कार्यक्रमों की घोषणा करती हैं जिन पर भारी मात्रा में जनता के पैसे ख़र्च होते हैं। इन सभी को ‘विकास’ तथा नागरिकों के जीवन में सुधार लाने के नाम पर औचित्यपूर्ण ठहराया जाता है। शायद ही कभी इन परियोजनाओं के वित्तपोषण के स्रोत, इनकी वित्तीय व्यवहार्यता या राजकोष पर इससे पड़ने वाले वित्तीय भार पर कोई सवाल उठाया जाता है। यह काम बस ‘विशेषज्ञों’ पर छोड़ दिया जाता है। कुछेक मामलों में ऐसे कुछ सवाल खड़े भी किए गए तो उन्हें सार्वजनिक भलाई और प्रगति के नाम पर चुप करा दिया गया।
दिल्ली मेट्रो भी एक ऐसा ही उदाहरण है जहाँ इसकी आलोचना से संबंधित सवालों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई तथा मेट्रो की चमक-धमक और ‘सुविधा’ के कारण बहुत आसानी से ऐसा प्रतीत कराया गया कि सब ठीक-ठाक है।
दिल्ली मेट्रो के प्रभाव, शहर में सड़कों पर भीड़-भाड़ कम करने में इसकी सफलता, इसका खर्च उठाने की हमारी क्षमता, वित्तीय व्यवहार्यता तथा यातायात एवं परिवहन के अन्य साधनों से इसकी तुलना करने के लिए एक समीक्षात्मक अध्ययन किए बगैर इसे अन्य शहरों में बढ़ावा दिया जा रहा है और ‘दुहराया’ जा रहा है।
किसी भी परियोजना की कुल लागत सिर्फ ‘वित्त’ तक ही सीमित नहीं होती। ऐसी कई अन्य लागतें होती हैं जिन्हें पैसे से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, जैसे सामाजिक तथा पर्यावरणीय लागत। इस बात को मानते हुए, इस अध्ययन में केवल दिल्ली मेट्रो की वित्तीय लागत तथा व्यवहार्यता पर ही ध्यान दिया जा रहा है।
हम उम्मीद करते हैं कि यह अध्ययन आम लोगों को दिल्ली मेट्रो के वित्तीय पक्षों को समझने में मदद करेगा तथा अन्य शहरों में ‘मेट्रो’ की ‘लागत’ पर एक चर्चा शुरू करने में योगदान देगा, इससे पहले कि उन्हें शहर के नागरिकों पर थोप दिया जाए। इसके अतिरिक्त, हम यह भी आशा करते हैं कि इसके जरिए ‘किसका पैसा’ और उसे ‘किस तरह खर्च किया जा रहा है’ जैसे बुनियादी सवालों को उठाने में भी मदद मिलेगी।
The Centre for Financial Accountability aims to strengthen and improve financial accountability within India by engaging in critical analysis, monitoring and critique of the role of financial institutions – national and international, and their impact on development, human rights and the environment, amongst other areas. For more information visit http://www.cenfa.org Get in touch with us at info@cenfa.org
We also publish Finance Matters, a weekly newsletter on the development finance. The archive can be accessed at http://www.cenfa.org/newsletter-archive/
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मैं मानता हूँ कि मेरी कलम किसी को न्याय नहीं दे सकती है. मगर अपनी कलम से पूरी ईमानदारी के साथ यदि किसी के ऊपर अन्याय हो रहा है. तब उसको लेखन द्वारा उच्च अधिकारीयों तक पहुंचा दूँ. इस अख़बार के प्रथम पेज पर छपी खबर(मोबाईल चोरी के शक में युवक की तार से गला घोंटकर हत्या ) के बारें में मुझे जब अपने विश्वनीय सूत्रों से मालूम हुआ कि उपरोक्त केस पुलिस पैसे लेकर रफा-दफा करने के चक्कर में है. तभी मैंने थाने में जाकर उपरोक्त घटना का पूरा विवरण लिया उसके बाद पीड़ित पक्ष से मिला और अपने अख़बार में छपने से पहले हर रोज के अख़बारों के पत्रकारों के माध्यम से राष्ट्रिय अख़बारों में उपरोक्त घटना को प्रिंट करवाया. जिससे पुलिस के ऊपर दबाब बना और उसको आरोपितों की गिरफ्तारी दिखानी पड़ी. मेरी पत्रकारिता में काफी ऐसे अवसर आये है कि मेरे सूत्रों और आम आदमी ने किसी घटना की सूचना पुलिस को देने से पहले मुझे दी और अनेक बार मैंने पुलिस को फोन करके घटनास्थल पर बुलाया था. मैंने अपनी पत्रकारिता को लेकर सूत्रों और आम आदमी में यह विश्वास कायम किया था कि आपका नाम का जिक्र कभी नहीं आएगा. बेशक कोई कुत्ते की मौत मारे या धोखे से कभी मुझे मरवा दें. आप बिना झिझक के मुझे घटना और उसकी सच्चाई से अवगत करवाएं. मेरे बारें में यह मशहूर था कि एक बार कोई ख़बर सिरफिरे को पता चल जाये फिर खबर को खरीद या दबा नहीं सकता है, क्योंकि मुझे पत्रकारिता के शुरू से धन-दौलत से इतना मोह नहीं रहा है. हाँ, अपनी मेहनत और पसीने की कमाई का एक रुपया किसी के पास नहीं छोड़ता था. यदि शुरू में किसी ताकतवर व्यक्ति ने या किसी ने अपनी दबंगता के चलते रख भी लिए तो मैंने उसका कभी कोई अहित नहीं किया. मगर मेरे पैसे उसके पाप के घड़े की आखिरी बूंद साबित हुए. भगवान ने उनको ऐसी सजा दी कि काफी लोग तो दस-पन्दह साल तक भी उबर नहीं पायें. इसल
कैंब्रिज के अर्थशास्त्री, हा-जून चांग का मानना है कि ‘अर्थशास्त्र का 95 प्रतिशत सिर्फ सामान्य समझ है, जिसे गणित और भारी-भरकम शब्दावली का प्रयोग करके मुश्किल बनाया जाता है।’ इससे हम समझ सकते हैं कि लोग वित्त से जुड़े मामलों से दूर क्यों रहते हैं। सरकारें नयी परियोजनाओं, योजनाओं और कार्यक्रमों की घोषणा करती हैं जिन पर भारी मात्रा में जनता के पैसे ख़र्च होते हैं। इन सभी को ‘विकास’ तथा नागरिकों के जीवन में सुधार लाने के नाम पर औचित्यपूर्ण ठहराया जाता है। शायद ही कभी इन परियोजनाओं के वित्तपोषण के स्रोत, इनकी वित्तीय व्यवहार्यता या राजकोष पर इससे पड़ने वाले वित्तीय भार पर कोई सवाल उठाया जाता है। यह काम बस ‘विशेषज्ञों’ पर छोड़ दिया जाता है। कुछेक मामलों में ऐसे कुछ सवाल खड़े भी किए गए तो उन्हें सार्वजनिक भलाई और प्रगति के नाम पर चुप करा दिया गया।
दिल्ली मेट्रो भी एक ऐसा ही उदाहरण है जहाँ इसकी आलोचना से संबंधित सवालों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई तथा मेट्रो की चमक-धमक और ‘सुविधा’ के कारण बहुत आसानी से ऐसा प्रतीत कराया गया कि सब ठीक-ठाक है।
दिल्ली मेट्रो के प्रभाव, शहर में सड़कों पर भीड़-भाड़ कम करने में इसकी सफलता, इसका खर्च उठाने की हमारी क्षमता, वित्तीय व्यवहार्यता तथा यातायात एवं परिवहन के अन्य साधनों से इसकी तुलना करने के लिए एक समीक्षात्मक अध्ययन किए बगैर इसे अन्य शहरों में बढ़ावा दिया जा रहा है और ‘दुहराया’ जा रहा है।
किसी भी परियोजना की कुल लागत सिर्फ ‘वित्त’ तक ही सीमित नहीं होती। ऐसी कई अन्य लागतें होती हैं जिन्हें पैसे से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, जैसे सामाजिक तथा पर्यावरणीय लागत। इस बात को मानते हुए, इस अध्ययन में केवल दिल्ली मेट्रो की वित्तीय लागत तथा व्यवहार्यता पर ही ध्यान दिया जा रहा है।
हम उम्मीद करते हैं कि यह अध्ययन आम लोगों को दिल्ली मेट्रो के वित्तीय पक्षों को समझने में मदद करेगा तथा अन्य शहरों में ‘मेट्रो’ की ‘लागत’ पर एक चर्चा शुरू करने में योगदान देगा, इससे पहले कि उन्हें शहर के नागरिकों पर थोप दिया जाए। इसके अतिरिक्त, हम यह भी आशा करते हैं कि इसके जरिए ‘किसका पैसा’ और उसे ‘किस तरह खर्च किया जा रहा है’ जैसे बुनियादी सवालों को उठाने में भी मदद मिलेगी।
The Centre for Financial Accountability aims to strengthen and improve financial accountability within India by engaging in critical analysis, monitoring and critique of the role of financial institutions – national and international, and their impact on development, human rights and the environment, amongst other areas. For more information visit http://www.cenfa.org Get in touch with us at info@cenfa.org
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samayik Saraswati July September ank this is second issue of the magazine. Samayik Prakashan Magazine Editor Sharad Singh and Chief Editor Mahesh Bhardwaj