परिचय :
आचार्य रामचंद्रशुक्ल (1884-1941) हिंदी साहित्य के प्रमुख आलोचक, इतिहासकार,
और विचारक थे। उनकी साहित्य दृष्टि ने हिंदी साहित्य को न केवल गहराई प्रदान की,
बल्कि उसे व्यवस्थित ढांचे में प्रस्तुत किया। उनकी आलोचना भारतीय जीवन, समाज
और संस्कृति के गहन अवलोकन पर आधारित है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन नहीं माना, बल्कि उसे
मानव जीवन का सार और समाज का दर्पण समझा। उनका मानना था कि साहित्य का
उद्देश्य मानव-मन की संवेदनाओं और विचारों को अभिव्यक्त करना है। शुक्ल जी का
साहित्य दृष्टिकोण आदर्शवादी और व्यवहारवादी था।
साहित्य का उद्देश्य:
उनका मानना था कि साहित्य का मुख्य उद्देश्य मानव जीवन में "चित्तवृत्ति" का विस्तार
करना है। साहित्य मानव-मन को उत्तम विचारों और भावनाओं की ओर प्रेरित करता
है।
साहित्य की सार्वभौमिकता:
शुक्ल जी के अनुसार, साहित्य केवल एक व्यक्ति या वर्ग तक सीमित नहीं होता, बल्कि
यह सभी वर्गों और समाजों के लिए होता है।
3.
भाव की प्रधानता:
उन्होंनेसाहित्य में भाव को महत्वपूर्ण स्थान दिया और कहा कि साहित्य की सार्थकता भावों के
गहन और सजीव चित्रण में है।
अलौकिकता की अस्वीकृति:
उन्होंने साहित्य में कृत्रिमता और अलौकिकता का विरोध किया और सजीव, वास्तविक अनुभवों
पर जोर दिया।
भारतीयता का आग्रह:
उन्होंने साहित्य में भारतीय जीवन और मूल्य पर बल दिया। उनका मानना था कि साहित्य में
भारतीय परंपरा, सभ्यता और समाज की छवि स्पष्ट रूप से दिखनी चाहिए।
लोकमंगल की धारणा:
शुक्ल जी का साहित्य दृष्टिकोण लोकमंगल की भावना से ओत-प्रोत था। साहित्य का मुख्य उद्देश्य
समाज के कल्याण की दिशा में कार्य करना है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल की साहित्य दृष्टि भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रति गहरी आस्था और
मानवतावादी दृष्टिकोण पर आधारित है। उनकी आलोचना पद्धति और साहित्य दृष्टि ने हिंदी
साहित्य को नई दिशा दी। उनकी विचारधारा में भारतीय परंपरा और आधुनिकता का संतुलन
दिखाई देता है। इसलिए, “ ”
उन्हें हिंदी साहित्य का महान आलोचक कहा जाता है।