1. मूत्रकृ च्छ्र
“मूत्रस्य कृ च्छ्रेण महता दुखेन प्रवृत्तिः|
(मधुकोष)
जिस रोग में मूत्र की अत्यंत कष्ट के साथ प्रवृत्त होती है,
उसे मूत्रकृ च्छ्र कहते है|
मूत्रकृ च्छ्र में कृ च्छ्रता के साथ मूत्र त्वबन्धता
(ostruction) भी होती है, तथा मुत्रघात में के वल मूत्र
त्वबन्धता होती है|
ननरूजतत:- १. “यत्र रोगे कृ च्छ्रेण मुत्रयते, तत ् मूत्रकृ च्छ्रम्|
अथाात मूत्र का अत्यंत पीड़ा के साथ प्रवता होना मूत्रकृ च्छ्र है|
२. “मुत्रे कृ च्छ्रमत्र. इनत मूत्रकृ च्छ्रेम्|
2. प्रमुख सन्दभा ग्रंथ:-
१. चरक संहहता, चचककत्सा स्थान- अध्याय २६
२. सुश्रुत संहहता, उतरतंत्र- अध्याय ५९
३. अष्टांग ह्रदय, ननदान स्थान-अध्याय ५९
४. अष्टांग ह्रदय, चचककत्सा स्थान-अध्याय ५९
५. माधव ननदान- अध्याय ३०
६. भाव प्रकाश- अध्याय ३५
6. मूत्रकृ च्छ्र के भेद
आचाया चरक
१. वाति मूत्रकृ च्छ्र
२. त्पति मूत्रकृ च्छ्र
३. कफि मूत्रकृ च्छ्र
४. सजन्नपात मूत्रकृ च्छ्र
५. रतति मूत्रकृ च्छ्र
६. शुक्रि मूत्रकृ च्छ्र
७. अश्मररि मूत्रकृ च्छ्र
८. शका राि मूत्रकृ च्छ्र
आचाया सुश्रुत
१. वाति मूत्रकृ च्छ्र
२. त्पति मूत्रकृ च्छ्र
३. कफि मूत्रकृ च्छ्र
४. सजन्नपात मूत्रकृ च्छ्र
५. अमभघाति मूत्रकृ च्छ्र
६. शकृ ति मूत्रकृ च्छ्र
७. अश्मररि मूत्रकृ च्छ्र
८. शका राि मूत्रकृ च्छ्र
आचाया सुश्रुत ने अश्मरी मूत्रकृ च्छ्र में शुक्रि मूत्रकृ च्छ्र का समावेश
ककया है| आचाया चरक ने शकृ ति मूत्रकृ च्छ्र के स्थान पर शुक्रि
मूत्रकृ च्छ्र का वणान ककया है|
7. “मुत्रस्य कृ च्छ्रेण महता दुखेन प्रवृत्तिः|
(मधुकोष)
मूत्रकृ च्छ्र का सामान्य लक्षण अत्यंत कष्ट के साथ,
रुक-रुक कर बार-बार मूत्र प्रवृत्त होना है|
सामान्य लक्षण
8. वानतक मूत्रकृ च्छ्र के लक्षण
तीव्रा रुिो वङ्क्षणबजस्तमेढ्रे स्वल्पं मुहुमूात्रयतीह वातात्|
(च.चच.२६/३४)
१. वंक्षण, बजस्त एवं मेढ्र में तीव्र वेदना|
२. बार बार अल्प मात्र में मूत्र त्याग|
9. पैत्तक मूत्रकृ च्छ्र के लक्षण
पीतं सरततं सरुिं सदाहं कृ च्छ्रान्मुहुमूात्रयतीह त्पतात्|
(च.चच.२६/३४)
१. बार बार त्पत, रतत वणा का अल्प मूत्र त्याग
२. रुिा एवं दाह के साथ मूत्र प्रव्रत्त
10. कफि मूत्रकृ च्छ्र के लक्षण
बस्तेिः समलङ्गस्य गुरुत्वशोथौ मूत्रं सत्पच्छ्छं कफमूत्रकृ च्छ्रे|
(च.चच.२६/३४)
१. बजस्त एवं मूत्रेजन्द्रय में भारीपन
२. बजस्त एवं मूत्रेजन्द्रय में शोथ
३. त्पजच्छ्छलता युतत मूत्र त्याग
11. सजन्नपाति मूत्रकृ च्छ्र के लक्षण
सवााणण रूपाणण तु सजन्नपाताद्भवजन्त तत् कृ च्छ्रतमं हह कृ च्छ्रम्|
(च.चच.२६/३५)
१. सवांग दाह
२. कष्टपूवाक मूत्र प्रवृत्त आहद तीनो दोषो के ममचश्रत लक्षण पाये
िाते हैं|
12. अमभघाति मूत्रकृ च्छ्र के लक्षण
मूत्रवाहहषु शल्येन क्षतेष्वमभहतेषु वा |
मूत्रकृ च्छ्रं तदाघाताज्िायते भृशदारुणम् ||५||
वातकृ च्छ्रेण तुल्यानन तस्य मलङ्गानन ननहदाशेत् |
(मा.नन.३०/५)
मुत्रवाही स्रोतों में आभ्यंतर शल्य से अथवा बाह्य आघात
लगने से क्षत होने पर भयंकर मूत्रकृ च्छ्र होता हैं|
इसके लक्षण वानतक मूत्रकृ च्छ्र के सामान होते हैं|
13. शकृ ति मूत्रकृ च्छ्र के लक्षण
शकृ तस्तु प्रतीघाताद्वायुत्वागुणतां गतिः |
आध्मानं वातशूलं च मूत्रसङ्गं करोनत च ||
(मा.नन.३०/६)
मल के वेग को रोकने से वायु त्वलोम होकर शकृ ति मूत्रकृ च्छ्र
उत्पन्न कटा हैं|
लक्षण:-
१. आध्मान
२. उदरशूल
३. मूत्रावरोध
14. अश्मररि मूत्रकृ च्छ्र के लक्षण
अश्मरीहेतु तत्पूवं मूत्रकृ च्छ्रमुदाहरेत् |
(मा.नन.३०/७)
जिस मूत्रकृ च्छ्र का कारण अश्मरी होती हैं उसे अश्मरीि
मूत्रकृ च्छ्र कहते हैं|
15. शुक्रि मूत्रकृ च्छ्र के लक्षण
शुक्रे दोषैरुपहते मूत्रमागे त्वधात्वते
सशुक्रं मूत्रयेत् कृ च्छ्राद्बजस्तमेहनशूलवान् |
(मा.नन.३०/८)
16. चचककत्सा मसद्धांत
वाति मूत्रकृ च्छ्र:- वातनाशक तेल अभ्यंग एवं ननरुह बजस्त, उपनाह, उतरबजस्त,
वातनाशक तेल या तवाथ का कहट प्रदेश पर पररषेक|(चरकानुसार)
त्रेवृत तेल एवं घृत से मंदोष्ण िल या दुग्ध में ममलाकर पीने, अनुवासनबजस्त तथा
उतर बजस्त के मलये प्रयुतत करना| (सुश्रुतानुसार)
त्पति मूत्रकृ च्छ्र:- शीतल द्रव्यों के तवाथ से पररषेक, अवगाह, प्रदेह एवं ग्रीष्म
ऋतुचयाा का पालन, बजस्त, त्वरेचन, क्षीरपान|(चरकानुसार)
उत्पलाहद गण, ककोल्याहद गण, न््ग्रोधाहद गण की औषचधयों के
कलक से मसद्ध तेल या घृत पान एवं उतर बजस्त| (सुश्रुतानुसार)
कफि मूत्रकृ च्छ्र:- क्षार, उष्ण, तीक्ष्ण एवं कटु रस वाले अन्नपान का सेवन, स्वेदन
का प्रयोग, िौ के बने भक्ष्य पदाथा का सेवन, ननरुह बजस्त, तक्र
प्रयोग एवं नततत द्रव्यों से मसद्ध तेल का अभ्यंग एवं पान|
(चरकानुसार)
सुरसाहद, वरुनाहद, मुस्ताहद की औषचधयों से मसद्ध तेल हहतकर|
(सुश्रुतानुसार)
त्रत्रदोषि मूत्रकृ च्छ्र:- वात के स्थान का त्वचार करते हुये चचककत्सा करना चाहहए|
कफाचधतय हो तो वमन, त्पताचधतय हो तो त्वरेचन, वाताचधतय
हो तो बजस्त का प्रयोग| (चरकानुसार)
तीनो दोषहर योगो को ममचश्रत कर प्रयुतत करना| (सुश्रुतानुसार)
अश्मरीिन्य मूत्रकृ च्छ्र:- अश्मरी भेदन एवं पातन करने के साथ-साथ कफ एवं वायु
से होने वाले मूत्रकृ च्छ्र की चचककत्सा|
सवात्रत्रदोषप्रभवे| च. चच २६/५८
17. चचककत्सा मसद्धांत
अश्मरीिन्य मूत्रकृ च्छ्र:- अश्मरी भेदन एवं पातन करने के साथ-साथ कफ एवं वायु
से होने वाले मूत्रकृ च्छ्र की चचककत्सा| (चरकानुसार)
शुक्रिन्य मूत्रकृ च्छ्र:- दोष प्राधान्य के अनुसार चचककत्सा|
रतति मूत्रकृ च्छ्र:- मधुर वगा के द्रव्यों से मसद्ध तवाथ में मधु एवं ममश्री ममलकर
त्पने दे, साथ हे इक्षुरस का सेवन| मूत्रकृ च्छ्र की चचककत्सा|
(चरकानुसार)
अमभघाति मूत्रकृ च्छ्र:- सध्योव्रण सामान चचककत्सा|
सवात्रत्रदोषप्रभवे| च. चच २६/५८
18. शुक्रिन्य मूत्रकृ च्छ्र:- दोष प्राधान्य के अनुसार चचककत्सा|
रतति मूत्रकृ च्छ्र:- मधुर वगा के द्रव्यों से मसद्ध तवाथ में मधु एवं ममश्री ममलकर
त्पने दे, साथ हे इक्षुरस का सेवन| मूत्रकृ च्छ्र की चचककत्सा|