2. शब्दार्थः सन्धिच्छेदः
गुणज्ञेषु गुणवानों में
ननगुथणं गुणहीनों को
प्राप्य पाकर ननगुथणाः ननः +गुणाः
सुस्वादुतोयाः स्वाददष्ट पानी समुद्रमासा
द्य
समुद्रम ्
+आसाद्य
भवध्यपेयाः न पीने योग्य भवध्यपेयाः भवन्धत
+अपेयाः
सरलार्थः – गुण गुणवानों में गुण होता है परन्तु ननगुथण को पाकर वही गुण दोष
बन जाता है ठीक उसी प्रकार जैसे नददय ॉं स्वादयुक्त जल पैदा करती हैं परन्तु समुद्र में
पहुच कर वह स्वाददष्ट जल स्वादववहीन (खारा) हो जाता है/
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5. शब्दार्थः सन्धिच्छेदः
ववहीनः रदहत खादधनवप खादत् +अवप
पुच्छववषाणही
नः
पूछ और सींग से
रदहत
न खादधनवप न खाता हुआ
सरलार्थ- सादह्य, सॉंगीत और कला से रदहत व्यन्क्त सीॉंग
और पॅूछ से रदहत साक्षात ् पशु के समान है/ पृथ्वी पर
जीववत रहकर वह व्यन्क्त घास नही खाता जो पशुओॉं का
परम सौभाग्य है /
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6. लुब्धस्य नश्यनत यशः वपशुनस्य मैत्री
नष्टक्रियस्य कु लमर्थपरस्य धमथः /
ववद्याफलॉं व्यसनननः कृ पणस्य सौख्यॉं
राज्यॉं प्रम्तसचचवस्य नराचधपस्य //
सरलार्थ- लोभी (लालची) का यश नष्ट हो जाता है,
चुगुलखोर की ममत्रता, क्रिया को नष्ट करने वाले का
वॉंश, धन के लालची (मतलबी) का धमथ, व्यसन में पड़ने
वाले की ववद्या, मतवाला ( घमण्डी) मन्त्री वाले राजा
का राज्य नष्ट हो जाता है
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7. पी्वा रसॉं तु कटुकॉं मधुरॉं समानॉं
माधुयथमेव जनयेन्मधुमक्षक्षकासौ /
सन्तस्तर्ैव समसज्जनदुजथनानाॉं
श्रु्वा वचः मधुरसॅूक्तरसॉं सृजन्न्त //
सरलार्थ- मीठे और कड़वे रसों को समान रूप से पीकर मधुमक्खी न्जस तरह से के वल
मधुरता (शहद) को ही उ्तपन्न करती है ठीक उसी तरह से सज्जन पुरुष् दुष्टो ओैर
सज्जनेाॉं के वाणी को समान रूप से सुन कर के वल मीठे सुन्दर वचनों को ही ननममथत
करता है //
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8. शब्दार्थः सन्धिः
कटुकं कड़वा जनयेधमिु
मक्षक्षकासौ
जनयेत ्+मिुम
क्षक्षका+असौ
जनयेधमिु
मक्षक्षकासौ
मिुमक्खी
उ्पधन करे
सधतस्तर्ै
व
सधतः+तर्ा+एव
सधतस्तर्ैव सज्जन लोग
उसी प्रकार से
वपब ्+क््वा पी्वा
सृजन्धत रचना करते हैं श्रु+क््वा श्रु्वा
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9. शब्दार्थः सन्धिः
सैव वह ही सैव स + एव
परैरवप दूसरों के द्वारा भी परैरवप परैः + अवप
लाकृ नतयथर्ा जैसे नौ की संख्या लाकृ नतयथर्ा लृ+आकृ नतः + यर्ा
महताॉं प्रकृ नतः सैव वचधथतानाॉं परैरवप |
न जहानत ननज भावॉं सॉंख्यासु लाकृ नतयथर्ा||
सरलार्थ- दॅूसरों के द्वारा बढाये जाने पर ( प्रशॉंसा क्रकये जाने पर )
महान लोग अपने स्वभाव को उसी तरह नहीॉं छोड़ते जैसे
सॉंख्याओॉं में ९ अपनी आकृ नत को नहीॉं छोड़ता |
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10. शब्दार्थः सन्धिः
रोचमानायां सुशोभभत होने पर ्वरोचमानायां तु + अरोचमानायाम ्
रोचते अच्छा लगता है
न्स्त्रयाॉं रोचमानायाॉं सवं तद् रोचते कु लम्/
तस्याॉं ्वरोचमानायाॉं सवथमेव न रोचते //
सरलार्थ- पररवार के सम्पॅूण्थ व्यवहार में स्त्री की रोचकता पर ( अच्छा लगना
) सम्पॅूणथ पररवार का वातावरण सुखद हो जाता है जबक्रक व्यवहार में स्त्री
की अरोचकता पर पररवार का वातावरण सुन्दर नहीॉं लगता, न्जससेपररवार
की उन्ननत रुक जाती है //
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