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पत्थर ही पत्थर
- शीला इंद्र
न जाने कौन बुद्धू होगा जजसने ‘फर्स्ट अप्रैल फू ल’
बनाने का ररवाज चलाया होगा। मुझे ऐसी बातें
जबल्कु ल अच्छी नहीं लगतीं।
वीनू ने जपछले साल मुझे मूर्ट बनाया था। बड़ी
पक्की सहेली की दुम बनती है। सारे में मेरी, वह
जर्ल्ली उड़वाई थी कक मैं महीने भर वीनू से
बोली नहीं। वह तो वीनू का
‘बथट डे’ न आता तो मैं उससे तब भी न बोलती।
मालूम है, उसने क्या ककया था? उसने न जाने कै से एक कागज पर गधे की तर्सवीर बनाकर मेरी ड्रेस के
पीछे जचपका दी थी। उस पर जलर्ा था-“मैं पत्थर हूँ। बच के जनकलना!” सारे कदन सब बच्चे मेरा मजाक
बनाते रहे-‘भई, बच के चलो, कहीं लग न जाए!’ और शाम को घर जाने पर मम्मी ने वह कागज
जनकालकर मुझे कदर्ाया था। यह बहादुरे का बच्चा है न हमारा नौकर, मुझे देर्कर हूँसते-हूँसते लो्पो्
हो गया था। बदतमीज कहीं का! मुझे ऐसा रोना आया था कक क्या बताऊूँ !
वीनू और इन सबने मुझे तंग न ककया होता, तो मैं कभी भी इन सबको ‘अप्रैल फू ल’ बनाने की न
सोचती। मैं हरजगज ऐसी बुद्धूपने की बातों में न पड़ती, पर क्या बताऊूँ ....।
जनवरी में हमारे पड़ोस की कोठी में एक एस.डी.ओ. साहब बदली हो कर आए थे। उनकी लड़की रेवा
उम्र में हमारे ही बराबर है। पर वह मथुरा में ही अपनी बुआ के पास रह गई थी। लेककन होली पर वह
अपने पापा-मम्मी के पास आ गई थी। जजस कदन मथुरा लौ्ने वाली थी, उसी कदन उसे तेज बुर्ार आ
गया और ्ायफायड हो गया। अब ठीक होकर वह चार-पाूँच अप्रैल को वापस मथुरा जाने वाली थी।
मैंने भी सोचा कक रेवा के जन्मकदन के बहाने जपछले साल का बदला सबसे एक साथ जलया जाए- ऐसा
बदला कक सारे के सारे हमेशा याद रर्ें!
पापा के एक दोर्सत नाई की मंडी में रहते हैं। उनका लड़का परेश तेरह साल का है, मुझसे तीन-चार साल
बड़ा। मैंने उसी को अपना हमराज बनाया। उसने बड़े सुंदर-सुंदर अक्षरों में एक जनमंत्रण पत्र जलर्ा-रेवा
की मम्मी की तरफ से, कक सब बच्चों को रेवा के जन्मकदन के उपलक्ष में पहली अप्रैल को चाय का
जनमंत्रण है। सभी बच्चे जरुर-जरुर आएूँ। नीचे जनमंजत्रत बच्चों के नाम थे, जजनमें सबसे ऊपर मेरा नाम
था। (जजससे ककसी को मेरे ऊपर शक न हो) नीचे एक छो्ी-सी सूचना भी थी कक कोई भी रेवा से
इसका जजक्र न करें क्योंकक अचानक सबको देर्कर उसे बड़ी प्रसन्नता होगी। यह सब जलर्वाने और
ककसी से न कहने के जलए परेश को पूरे डेढ़ रुपये वाली चाकले् की घूस देनी पड़ी। मैंने सोचा था, आधी
चाकले् तो वह मुझे देगा ही और इस तरह मेरे आधे पैसे वसूल हो जाएूँगे, पर उसने जसफट एक चौकोर
्ुकड़ा मेरे हाथ में थमा कदया, बाकी सब र्ुद हड़प गया। नदीदा कहीं का!
अब सवाल था, कक यह जनमंत्रण ककससे जभजवाया जाए। सो मैंने रेवा के घर की महरी को पकड़ा और
र्ूब समझा कदया कक जसवाय रेवा के वह सबके पास इस जचट्ठी को देकर दर्सतर्त करा लाए। पर वह
क्यों करने लगी मुफ्त में मेरा काम? और उसको भी पूरा एक रुपया इस काम के जलए देना पड़ा। मेरी
गुल्लक में सवा तीन रुपये जमा हुए थे, उसी में से यह सब र्चाट ककया था मैंने।
अब वीनू, पपंकी, छु न्नू, दीना, पाूँचू सभी बड़े र्ुश। मैं भी बड़ी र्ुश। इसी के जलए तो ढ़ाई रुपये र्चट
ककए थे। जब भी सब जमले, तो यही बातें हुईं कक कौन क्या पहन कर पा्ी में जाएगा। रेवा के जलए कौन
क्या उपहार ले जाएगा? पपंकी फाउं ्ेन पेन दे रही थी। वीनू की माूँ एक राइट्ंग पैड और जलफाफे लाई
थी- यह सोचकर कक रेवा मथुरा में रहती है माूँ-बाप को जचट्ठी जलर्ने के काम आएगा। साथ में तर्सवीरों
वाले पोर्स् काडों का से् भी था। छु न्नू ने एक ग्लोब र्रीदा था। दीना और पाूँचू क्या ले जाएूँगे, पता
नहीं था, क्योंकक उन दोनों ही के पापा अभी तक कु छ लाए नहीं थे। मैंने भी कह कदया कक ‘मेरेपापा ने
कहा है कक कोई बकढ़या चीज लाएूँगे, देर्ों क्या लाकर देते हैं? मन ही मन मुझे बड़ी हूँसी आ रही थी
कक सारे के सारे र्ूब उल्लू बन रहे हैं।
दूसरे कदन ही पहली अप्रैल थी। सुबह से मेरे मन में शाम का नजारा देर्ने की बेचैनी थी। जब कक सबके
सब अपने-अपने प्रेजें् लेकर जाएूँगे और रेवा और उसकी मम्मी परेशान-सी सब के मुूँह ताकें गी और
घबड़ा कर कहेंगी कक ‘अरे, हमने तो ककसी को नहीं बुलाया था। रेवा का जन्म कदन तो आज है भी नहीं।‘
उस समय सबकी जर्जसयानी सूरतें देर्ने काजबल होंगी। वाह, क्या मजा आएगा! सारे के सारे नदीदे
जमठाई र्ाने के बदले जप्ा-सा मुूँह लेकर लौ्ेंगे।
कल पपंकी कह रही थी कक कहीं हमें ‘अप्रैल फू ल’ तो नहीं बनाया जा रहा है, तो पाूँचू और दीना दोनों
ही बोले-“वाह, रेवा की मम्मी हमें क्यों बेवकू फ बनाने लगीं? यकद रेवा बुलाती तो कोई बात थी सोचने
की।“ सभी ने यह बात मान ली थी।
सारे कदन र्सकू ल में मेरा मन नहीं लगा। लेककन एक बात सबसे मुजककल थी। वह यह कक मुझे तो मालूम
ही है कक सबको बेवकू फ बनाया जा रहा है, इसजलए मैं जाऊूँ या नहीं। जबना गए सब की जर्जसयानी
सूरतें देर्ूूँगी तो कै से? जाऊूँ तो कु छ प्रेजें् ले जाना चाजहए या नहीं?
शाम को घर आकर मैंने जल्दी से एक जडब्बा जलया। उसमें र्ूब से कागज भरे, बीच में कागज जलप्ा
एक पत्थर रर्ा। उस पर जलर्ा ‘फर्स्ट अप्रैल फू ल!’ कफर जडब्बे पर एक लाल कागज चढ़ाया और सादी-
सी फ्रॉक पहन कर रेवा के घर चल दी। सोचा था बाहर से ही रेवा को दे दूूँगी कक मुझे जरुरी काम से
जाना है, मैं आ न सकूूँ गी।
रार्सते में सोचती जा रही थी कक ये लोग लौ्ते हुए या रेवा के घर से जनकलते हुए कदर्ाई दे जाएूँ, तो
ही मजा रहे। पर न तो मुझे रार्सते में कोई कदर्ा, न रेवा के घर से जनकलता हुआ ही जमला। हाय राम!
कहीं ऐसा तो नहीं कक वे लोग आए ही न हों और सबको पता लग गया हो कक वे बुद्धू बनाए जा रहे हैं।
इसी उलझन में मैं बाहर के दरवाजे तक पहुूँची, तो सामने महरी बैठी तमार्ू र्ा रही थी। मुझे देर्ते ही
काली-काली बत्तीसी जनपोरकर बोली“आवौौ्, जमन्नी रानी, आवौ। सबकै सब र्ाय रहे हैं। तुमहु जावौ,
माल उड़ावौ। तुम्हार जचरठया ने तो र्ूब काम बनावौ।“
“क्या सब र्ा रहे हैं?” मैं हैरान-सी महरी का मुूँह ताकती रह गई। “क्या कह रही है तू?”
तभी रेवा मुझे दरवाजे पर देर्कर भागती हुई आई। “आओ, जमन्नी, आओ। तुमने बड़ी देर कर दी।
तुम्हारा इंतजार करते-करते अभी-अभी र्ाना शुरु ककया है।“
मैं घबड़ा गई। “क्या तेरा सचमुच आज जन्म कदन है।“
“अरे हाूँ, सच ही तो है। और तू क्या मजाक समझ रही थी कक आज सबको ‘अप्रैल फू ल’ बनाया जा रहा
है?”
तभी पाूँचू हाथ में जमठाई-नमकीन भरी प्ले् लेकर बाहर आ गया। (हाय! ककतनी सारी चीजें थीं उसमें-
सब मेरी पसंद की!)
मुूँह में रसगुल्ला ठूूँसते हुए पाूँचू बोला, “वाह, जमन्नी रानी, इतनी देर कर दी तुमने! मैं तो रेवा से कह
रहा था कक जमन्नी नहीं आएगी। उसकी प्ले् भी मुझे ही दे दो।“ कफर मेरे हाथ के जडब्बे पर झूकते हुए
बोला, “वाह, बड़ा भारी प्रेजें् ले कर आई हो तुम तो! क्या लाई हो इसमें?”
पत्थर लाई हूँ- मैंने मन ही मन कहा और रेवा जो मुझे पकड़ कर अंदर र्ींच रही थी, उसके हाथों से
अपने को छु ड़ाकर मैंने एकदम घबड़ाकर कहा, “रेवा, मैं तो समझी थी कक
“ह् पगली कहीं की, मम्मी भी तुम लोगों को बुद्धू बना सकती हैं क्या? पर देर्ो न, हर साल मम्मी से
कहती थी पर उन्होंने कभी मेरा जन्म-कदन नहीं मनाया। कह देती थी- “पहली अप्रैल’ को कोई नहीं
आएगाय सब समझेंगे “अप्रैल फू ल” बना रहे हैं। अब की देर्ो, मम्मी ने जबना मुझे बताए ही सबको बुला
जलया। सच, मम्मी बहुत अच्छी हैं.....अच्छा, अब चलो न.....” उसने अब कफर मेरा हाथ पकड़ जलया।
पर मैं अपना हाथ छु ड़ा कर तेजी से बाहर भागी- “रेवा, मैं बाद में आऊूँ गी ....” कहती हुई मैं भाग
चली। रार्सते में कफर महरी कदर् गई। बोली, “क्यों, रानी, लौ् काहे आई? अरे, तुम्हारी जचरठया बह जी
ने पढ़ी थी, वो तुम से बहुत र्ुश हैं। जावौ तुम्हें डबल जहर्ससा जमलेगा।“
तो यह बात है! इस महरी की बच्ची ने ही सारी गड़बड़ की..... पर रेवा का तो सचमुच आज ही जन्म-
कदन है। जछिः आज का कदन कोई पैदा होने का कदन होता है। तभी बुद्धू जैसी कदर्ती है..... पर...हाय!
ककतनी बकढ़या-बकढ़या चीजें थी पाूँचू की प्ले् में!
मम्मी घर में होतीं, तो उनसे ही जल्दी से घर में से ही कु छ जनकलवा कर रेवा के जलए ले जाती, पर
उन्हें भी पा्ी में आज ही जाना था। साथ में ट्ंकू को भी ले गईं.... मैं यहाूँ.... भगवान करे वह भी वहाूँ
र्ूब बुद्धू बनाई जाएूँ!
मुझे इतना रोना आया कक पलंग पर जगरकर र्ूब रोई। तभी बहादुरे ने आ कर पूरा पैके ् र्ोल डाला”
जमन्नी, यह क्या है? क्या लाई है तू....?”
“जसर लाई हूँ तेरा!” मैंने पैके ् उसके हाथ से झप्ना चाहा कक उसमें से र्ुलकर सारे कागज और पत्थर
भी नीचे जगर पड़े, जजन पर जलर्ा था “अप्रैल फू ल!”

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  • 1. पत्थर ही पत्थर - शीला इंद्र न जाने कौन बुद्धू होगा जजसने ‘फर्स्ट अप्रैल फू ल’ बनाने का ररवाज चलाया होगा। मुझे ऐसी बातें जबल्कु ल अच्छी नहीं लगतीं। वीनू ने जपछले साल मुझे मूर्ट बनाया था। बड़ी पक्की सहेली की दुम बनती है। सारे में मेरी, वह जर्ल्ली उड़वाई थी कक मैं महीने भर वीनू से बोली नहीं। वह तो वीनू का
  • 2. ‘बथट डे’ न आता तो मैं उससे तब भी न बोलती। मालूम है, उसने क्या ककया था? उसने न जाने कै से एक कागज पर गधे की तर्सवीर बनाकर मेरी ड्रेस के पीछे जचपका दी थी। उस पर जलर्ा था-“मैं पत्थर हूँ। बच के जनकलना!” सारे कदन सब बच्चे मेरा मजाक बनाते रहे-‘भई, बच के चलो, कहीं लग न जाए!’ और शाम को घर जाने पर मम्मी ने वह कागज जनकालकर मुझे कदर्ाया था। यह बहादुरे का बच्चा है न हमारा नौकर, मुझे देर्कर हूँसते-हूँसते लो्पो् हो गया था। बदतमीज कहीं का! मुझे ऐसा रोना आया था कक क्या बताऊूँ ! वीनू और इन सबने मुझे तंग न ककया होता, तो मैं कभी भी इन सबको ‘अप्रैल फू ल’ बनाने की न सोचती। मैं हरजगज ऐसी बुद्धूपने की बातों में न पड़ती, पर क्या बताऊूँ ....। जनवरी में हमारे पड़ोस की कोठी में एक एस.डी.ओ. साहब बदली हो कर आए थे। उनकी लड़की रेवा उम्र में हमारे ही बराबर है। पर वह मथुरा में ही अपनी बुआ के पास रह गई थी। लेककन होली पर वह अपने पापा-मम्मी के पास आ गई थी। जजस कदन मथुरा लौ्ने वाली थी, उसी कदन उसे तेज बुर्ार आ गया और ्ायफायड हो गया। अब ठीक होकर वह चार-पाूँच अप्रैल को वापस मथुरा जाने वाली थी। मैंने भी सोचा कक रेवा के जन्मकदन के बहाने जपछले साल का बदला सबसे एक साथ जलया जाए- ऐसा बदला कक सारे के सारे हमेशा याद रर्ें! पापा के एक दोर्सत नाई की मंडी में रहते हैं। उनका लड़का परेश तेरह साल का है, मुझसे तीन-चार साल बड़ा। मैंने उसी को अपना हमराज बनाया। उसने बड़े सुंदर-सुंदर अक्षरों में एक जनमंत्रण पत्र जलर्ा-रेवा की मम्मी की तरफ से, कक सब बच्चों को रेवा के जन्मकदन के उपलक्ष में पहली अप्रैल को चाय का जनमंत्रण है। सभी बच्चे जरुर-जरुर आएूँ। नीचे जनमंजत्रत बच्चों के नाम थे, जजनमें सबसे ऊपर मेरा नाम था। (जजससे ककसी को मेरे ऊपर शक न हो) नीचे एक छो्ी-सी सूचना भी थी कक कोई भी रेवा से इसका जजक्र न करें क्योंकक अचानक सबको देर्कर उसे बड़ी प्रसन्नता होगी। यह सब जलर्वाने और ककसी से न कहने के जलए परेश को पूरे डेढ़ रुपये वाली चाकले् की घूस देनी पड़ी। मैंने सोचा था, आधी चाकले् तो वह मुझे देगा ही और इस तरह मेरे आधे पैसे वसूल हो जाएूँगे, पर उसने जसफट एक चौकोर
  • 3. ्ुकड़ा मेरे हाथ में थमा कदया, बाकी सब र्ुद हड़प गया। नदीदा कहीं का! अब सवाल था, कक यह जनमंत्रण ककससे जभजवाया जाए। सो मैंने रेवा के घर की महरी को पकड़ा और र्ूब समझा कदया कक जसवाय रेवा के वह सबके पास इस जचट्ठी को देकर दर्सतर्त करा लाए। पर वह क्यों करने लगी मुफ्त में मेरा काम? और उसको भी पूरा एक रुपया इस काम के जलए देना पड़ा। मेरी गुल्लक में सवा तीन रुपये जमा हुए थे, उसी में से यह सब र्चाट ककया था मैंने। अब वीनू, पपंकी, छु न्नू, दीना, पाूँचू सभी बड़े र्ुश। मैं भी बड़ी र्ुश। इसी के जलए तो ढ़ाई रुपये र्चट ककए थे। जब भी सब जमले, तो यही बातें हुईं कक कौन क्या पहन कर पा्ी में जाएगा। रेवा के जलए कौन क्या उपहार ले जाएगा? पपंकी फाउं ्ेन पेन दे रही थी। वीनू की माूँ एक राइट्ंग पैड और जलफाफे लाई थी- यह सोचकर कक रेवा मथुरा में रहती है माूँ-बाप को जचट्ठी जलर्ने के काम आएगा। साथ में तर्सवीरों वाले पोर्स् काडों का से् भी था। छु न्नू ने एक ग्लोब र्रीदा था। दीना और पाूँचू क्या ले जाएूँगे, पता नहीं था, क्योंकक उन दोनों ही के पापा अभी तक कु छ लाए नहीं थे। मैंने भी कह कदया कक ‘मेरेपापा ने कहा है कक कोई बकढ़या चीज लाएूँगे, देर्ों क्या लाकर देते हैं? मन ही मन मुझे बड़ी हूँसी आ रही थी कक सारे के सारे र्ूब उल्लू बन रहे हैं। दूसरे कदन ही पहली अप्रैल थी। सुबह से मेरे मन में शाम का नजारा देर्ने की बेचैनी थी। जब कक सबके सब अपने-अपने प्रेजें् लेकर जाएूँगे और रेवा और उसकी मम्मी परेशान-सी सब के मुूँह ताकें गी और घबड़ा कर कहेंगी कक ‘अरे, हमने तो ककसी को नहीं बुलाया था। रेवा का जन्म कदन तो आज है भी नहीं।‘ उस समय सबकी जर्जसयानी सूरतें देर्ने काजबल होंगी। वाह, क्या मजा आएगा! सारे के सारे नदीदे जमठाई र्ाने के बदले जप्ा-सा मुूँह लेकर लौ्ेंगे। कल पपंकी कह रही थी कक कहीं हमें ‘अप्रैल फू ल’ तो नहीं बनाया जा रहा है, तो पाूँचू और दीना दोनों ही बोले-“वाह, रेवा की मम्मी हमें क्यों बेवकू फ बनाने लगीं? यकद रेवा बुलाती तो कोई बात थी सोचने की।“ सभी ने यह बात मान ली थी।
  • 4. सारे कदन र्सकू ल में मेरा मन नहीं लगा। लेककन एक बात सबसे मुजककल थी। वह यह कक मुझे तो मालूम ही है कक सबको बेवकू फ बनाया जा रहा है, इसजलए मैं जाऊूँ या नहीं। जबना गए सब की जर्जसयानी सूरतें देर्ूूँगी तो कै से? जाऊूँ तो कु छ प्रेजें् ले जाना चाजहए या नहीं? शाम को घर आकर मैंने जल्दी से एक जडब्बा जलया। उसमें र्ूब से कागज भरे, बीच में कागज जलप्ा एक पत्थर रर्ा। उस पर जलर्ा ‘फर्स्ट अप्रैल फू ल!’ कफर जडब्बे पर एक लाल कागज चढ़ाया और सादी- सी फ्रॉक पहन कर रेवा के घर चल दी। सोचा था बाहर से ही रेवा को दे दूूँगी कक मुझे जरुरी काम से जाना है, मैं आ न सकूूँ गी। रार्सते में सोचती जा रही थी कक ये लोग लौ्ते हुए या रेवा के घर से जनकलते हुए कदर्ाई दे जाएूँ, तो ही मजा रहे। पर न तो मुझे रार्सते में कोई कदर्ा, न रेवा के घर से जनकलता हुआ ही जमला। हाय राम! कहीं ऐसा तो नहीं कक वे लोग आए ही न हों और सबको पता लग गया हो कक वे बुद्धू बनाए जा रहे हैं। इसी उलझन में मैं बाहर के दरवाजे तक पहुूँची, तो सामने महरी बैठी तमार्ू र्ा रही थी। मुझे देर्ते ही काली-काली बत्तीसी जनपोरकर बोली“आवौौ्, जमन्नी रानी, आवौ। सबकै सब र्ाय रहे हैं। तुमहु जावौ, माल उड़ावौ। तुम्हार जचरठया ने तो र्ूब काम बनावौ।“ “क्या सब र्ा रहे हैं?” मैं हैरान-सी महरी का मुूँह ताकती रह गई। “क्या कह रही है तू?” तभी रेवा मुझे दरवाजे पर देर्कर भागती हुई आई। “आओ, जमन्नी, आओ। तुमने बड़ी देर कर दी। तुम्हारा इंतजार करते-करते अभी-अभी र्ाना शुरु ककया है।“ मैं घबड़ा गई। “क्या तेरा सचमुच आज जन्म कदन है।“ “अरे हाूँ, सच ही तो है। और तू क्या मजाक समझ रही थी कक आज सबको ‘अप्रैल फू ल’ बनाया जा रहा है?”
  • 5. तभी पाूँचू हाथ में जमठाई-नमकीन भरी प्ले् लेकर बाहर आ गया। (हाय! ककतनी सारी चीजें थीं उसमें- सब मेरी पसंद की!) मुूँह में रसगुल्ला ठूूँसते हुए पाूँचू बोला, “वाह, जमन्नी रानी, इतनी देर कर दी तुमने! मैं तो रेवा से कह रहा था कक जमन्नी नहीं आएगी। उसकी प्ले् भी मुझे ही दे दो।“ कफर मेरे हाथ के जडब्बे पर झूकते हुए बोला, “वाह, बड़ा भारी प्रेजें् ले कर आई हो तुम तो! क्या लाई हो इसमें?” पत्थर लाई हूँ- मैंने मन ही मन कहा और रेवा जो मुझे पकड़ कर अंदर र्ींच रही थी, उसके हाथों से अपने को छु ड़ाकर मैंने एकदम घबड़ाकर कहा, “रेवा, मैं तो समझी थी कक “ह् पगली कहीं की, मम्मी भी तुम लोगों को बुद्धू बना सकती हैं क्या? पर देर्ो न, हर साल मम्मी से कहती थी पर उन्होंने कभी मेरा जन्म-कदन नहीं मनाया। कह देती थी- “पहली अप्रैल’ को कोई नहीं आएगाय सब समझेंगे “अप्रैल फू ल” बना रहे हैं। अब की देर्ो, मम्मी ने जबना मुझे बताए ही सबको बुला जलया। सच, मम्मी बहुत अच्छी हैं.....अच्छा, अब चलो न.....” उसने अब कफर मेरा हाथ पकड़ जलया। पर मैं अपना हाथ छु ड़ा कर तेजी से बाहर भागी- “रेवा, मैं बाद में आऊूँ गी ....” कहती हुई मैं भाग चली। रार्सते में कफर महरी कदर् गई। बोली, “क्यों, रानी, लौ् काहे आई? अरे, तुम्हारी जचरठया बह जी ने पढ़ी थी, वो तुम से बहुत र्ुश हैं। जावौ तुम्हें डबल जहर्ससा जमलेगा।“ तो यह बात है! इस महरी की बच्ची ने ही सारी गड़बड़ की..... पर रेवा का तो सचमुच आज ही जन्म- कदन है। जछिः आज का कदन कोई पैदा होने का कदन होता है। तभी बुद्धू जैसी कदर्ती है..... पर...हाय! ककतनी बकढ़या-बकढ़या चीजें थी पाूँचू की प्ले् में! मम्मी घर में होतीं, तो उनसे ही जल्दी से घर में से ही कु छ जनकलवा कर रेवा के जलए ले जाती, पर उन्हें भी पा्ी में आज ही जाना था। साथ में ट्ंकू को भी ले गईं.... मैं यहाूँ.... भगवान करे वह भी वहाूँ र्ूब बुद्धू बनाई जाएूँ! मुझे इतना रोना आया कक पलंग पर जगरकर र्ूब रोई। तभी बहादुरे ने आ कर पूरा पैके ् र्ोल डाला”
  • 6. जमन्नी, यह क्या है? क्या लाई है तू....?” “जसर लाई हूँ तेरा!” मैंने पैके ् उसके हाथ से झप्ना चाहा कक उसमें से र्ुलकर सारे कागज और पत्थर भी नीचे जगर पड़े, जजन पर जलर्ा था “अप्रैल फू ल!”